"तरसी-निगाह"

on Monday, January 18, 2010

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"फरियाद कर रही है ये, तरसी हुयी निगाह,
मिल जाए किसी आइने में मुझको भी पनाह;

गुलशन-परस्त हो गया एक घर तलाशते,
है गुल नहीं तो क्या हुआ कांटों में भी निबाह;

ये कैसा मोड़ साकी था तेरे ख्यालों का,
रुक गयी है लब पे देख इस तरफ भी आह;

जो सूखे हुए फूल मिले तेरी किताब में,
वो मैं ही हू कह दे तू कुबूल हर गुनाह;

बुझे-बुझे चिरागों की बढ़ा दे तू लौ,
भटक न जाऊं कही हो के मैं गुमराह;

जिंदगानी दो दिन की मुस्कुरा ले तू,
होना ही है जिन्दगी का मौत से ही ब्याह,

आज फिर है बह चला "दरियाए-गमेदिल"
बहा दे मुझे इस तरह मिले न कहीं थाह........."

Manish "गमेदिल"

2 comments:

स्वप्न मञ्जूषा said...

गुलशन-परस्त हो गया एक घर तलाशते,
है गुल नहीं तो क्या हुआ कांटों में भी निबाह;

sabhi sher man bhaye hain..
ahsaason se labrez aashaar...
likhte raheiye...

mani said...

wah mere shayar dost waht

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