उम्र भर का सफ़र दो पल में ख़त्म,
पर भ्रमर को फूलों से प्यार होता है;
लाख जल जायेंगे, लाख मिट जायेंगे,
पर परवानों को "लौ" से प्यार होता है;
फसल पकने से पहले ही ना जाने क्यूँ,
कृषक को खेतों से प्यार होता है;
उसके आने से शायद हो "अंत मेरा"
पर शबनम को किरणों से प्यार होता है;
बच्चे की सूरत देखे ही बिन,
माँ को बच्चे से प्यार होता है;
मौत के साये में लिपटते ही क्यूँ;
इन्सां को जिन्दगी से प्यार होता है;
क्यूंकि शायद "प्यार अँधा होता है"..............................
Manish Singh "गमेदिल"
दोषी कौन............... हम या हमारी संस्कृति?
Posted by Manish Singh "गमेदिल" on Wednesday, October 6, 2010.
मैं गत २० दिनों से ब्लॉग्गिंग की दुनिया से नदारद था। कारण था मेरे अनुज की अकाल मृत्यु। मेरा अनुज "दीपक" मेरी मझली बुआ जी का ज्येष्ठ पुत्र था तथा मुझसे ३ वर्ष छोटा था। उसकी मृत्यु ने मुझे कुछ बिन्दुओं पर सोचने पर मजबूर कर दिया। जो मैं आप के साथ बाँटना चाहता हूँ।
१* सूनी देहरी: - बताता चलूँ मेरी बुआ जी का देहावसान तीन वर्ष पूर्व हुआ था उस समय दीपक मात्र सोलह वर्ष का किशोर था। बुआ जी के दो पुत्र और तीन पुत्रियाँ है। सबसे नन्ही बेटी मात्र एक वर्ष की थी।
अब सामने दो समस्याएं थी -
एक बच्ची का ख्याल कौन रख्खेगा? और दूसरी घर कौन संभालेगा?
नतीजा किशोर दीपक का विवाह करवा दिया गया।
२* दीपक का विवाह: - जिन परिस्थितयों में हुआ शायद कारण उचित हो। पर दीपक उस समय नाबालिग था, वह शारीरिक तथा मानसिक रूप से परिपक्व नहीं था। उस समय वह १२वी का छात्र था। विवाह होने से ना केवल उसके भविष्य की गति पर विराम लग गया बल्कि उसकी नयी नवेली मात्र १५ वर्षीय पत्नी की जिम्मेदारी का अतिरिक्त बोझ भी पड गया। उसे अपने "भविष्य को ताक पर रखकर" कमाने के लिए "दिल्ली" जाना पड़ा। क्या यह उचित था? क्या दीपक से साथ इंसाफ किया गया? मैंने उस समय भी बहुत कोशिश की थी पर बड़ों के विचारों के आगे मेरी आवाज को दबा दिया गया था। बेचारा दीपक, भविष्य के लिए उसने क्या क्या सपने देखे होंगे उसे सब-कुछ कुर्बान करना पड़ा।
मैं आप से पूछता हूँ - क्या बच्ची तथा घर की जिम्मेदारी मिल कर नहीं उठाई जा सकती थी?
पर ऐसा नहीं हुआ।
३* १८ वर्षीय विधवा: - दीपक की अकाल मृत्यु ने उसकी पत्नी को बदहवास सा बना दिया है। उसकी हालत क्या होगी आप स्वयं अंदाजा लगा सकते है। मैं सिर्फ इतना कहूँगा की मैं उसकी हालत को उल्लेखित नहीं कर पाउँगा। पागलों जैसा ब्यवहार है उसका, हर आहट पर चौक जाना, शायद उसे अभी भी लगता है की दीपक वापस ज़रूर आएगा। यहाँ पर बताना चाहूँगा की दीपक की एक नन्ही सी परी "दिब्यांशी" भी है।
क्या होना चाहिए दीपक की पत्नी तथा उसकी परी का भविष्य? हमारे समाज के विद्वान पंडितों ज्ञानी का कहना है की हमारी संस्कृति के अनुसार एक विधवा को उसी घर में रहकर अपने ससुर, ननद और देवर का ख्याल रखना चाहिए। मैं आपसे पूछता हूँ - क्या यह उचित होगा? हम एक बार दीपक से साथ अन्याय कर चुके हैं क्या हमे अपनी गलतियों की पुनरावृति कर लेनी चाहिए? क्या यह उचित न होगा की दीपक की पत्नी जो की मात्र अठ्ठारह वर्ष की है, जिसने मात्र तीन वर्षों में ही पूरी जिंदगी जी ली, इन तीन वर्षों में वह बच्ची से ज़वान हुई, फिर माँ बनी और अब विधवा, का पुनर्विवाह कर दिया जाये। ताकि वह अपनी जिंदगी खुशहाल ढंग से जी सके। मेरी आवाज को बल दें ताकि मैं इन घिसे-पिटे रीति रिवाजों के चंगुलों से एक मासूम को आज़ाद करा सकूँ।
आपका मनीष सिंह "गमेदिल"
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"भागती दुनिया में जहाँ वक़्त का ठिकाना ही नहीं,
गैर तो गैर सही अपनों को जाना ही नहीं,
मरती हुई हरेक लम्हा जिन्दगी के कतरों में;
चलो मासूमियत ढूंढते है, चलो इंसानियत ढूंढते है,
कदम के साथ कदम मिलाने की कोशिश में जहाँ,
रस्ते में पड़े मौकों को भुनाने में जहाँ,
कहीं दूर भँवर में जिसे छोड़ा था कभी;
"सदा खुश रहो" कहती उन भीगी पलकों में,
चलो इंसानियत ढूंढते है,
मशगुल दिखे "ख़ुशी", ख़ुशी पाने की हसरत में,
"जल्दी मुकाम" पाने का जुनून इन्सां की फितरत में,
"चाहे जैसे भी" की लत में, कोई "धुयें के व्यसन में,
पर आते ही नज़र चेहरा "बाप" का इन झुकी नज़रों में,
चलो इंसानियत ढूंढते हैं,
"मैं कौन हूँ?" और "कहाँ हूँ?" हर वक़्त ढूंढते हो,
"अजनबी" सवालों का पता "अजनबी" से पूछते हो,
जहाँ देने के लिए "समय" भी "समय" खो जाता है,
वहीँ दिखते ही "शव-यात्रा" बरबस रुके पैरों में,
चलो इंसानियत ढूंढते हैं, चलो इंसानियत ढूंढते हैं......
Manish Singh "गमेदिल"
"आज बाँहों में शक्ति को भरना है हमे,
गाँधी ही नहीं आजाद भी बनना है हमे,
शक्ति की आराधना करनी ही होगी,
अगर भारत को आज़ाद ही रखना है हमे।
कर चुके कितनी ही हम शांति वार्ता,
कोई बताये कितनी मिली हमे सफलता,
मीठी बाँतो से देश की रक्षा ना होगी,
हारते ही रहेंगे गर बांहों में शक्ति ना होगी,
अब कोई समझौता नहीं करना है हमे
अगर भारत को आज़ाद ही रखना है हमे।
हम चले विश्व को शांति सन्देश देने,
किन्तु वो आ गया हमारे ही प्राण लेने,
मिटा सिंदूर कोख उजड़ी कितनो की,
किसने सुनी है पीड़ा दुर्बल-जनों की,
आज रिपु मान मर्दन करना है हमे,
अगर भारत को आज़ाद ही रखना है हमे।
मत भूलो कुछ ही हैं मानवतावादी,
हर तरफ खड़ा है एक आतंकवादी,
प्रेम का राग जिसे आता ही नहीं,
शांति का सन्देश जिसे भाता ही नहीं,
एकजुट होकर आतंकवाद से लड़ना है हमे,
अगर भारत को आज़ाद ही रखना है हमे।
वक़्त आ गया है शक्ति उपासना का,
पीड़ित भारत भूमि की आराधना का,
ह्रदय में हो प्रेम, बाँहों में शक्ति हो,
इस सफलता मंत्र की घोर साधना का,
नवशाक्तियुग का आवाहन करना है हमे,
अगर भारत को आज़ाद ही रखना है हमे।
Manish Singh "गमेदिल"