"प्यार अँधा होता है"

on Wednesday, November 3, 2010

उम्र भर का सफ़र दो पल में ख़त्म,
पर भ्रमर को फूलों से प्यार होता है;
लाख जल जायेंगे, लाख मिट जायेंगे,
पर परवानों को "लौ" से प्यार होता है;

फसल पकने से पहले ही ना जाने क्यूँ,
कृषक को खेतों से प्यार होता है;
उसके आने से शायद हो "अंत मेरा"
पर शबनम को किरणों से प्यार होता है;

बच्चे की सूरत देखे ही बिन,
माँ को बच्चे से प्यार होता है;
मौत के साये में लिपटते ही क्यूँ;
इन्सां को जिन्दगी से प्यार होता है;

क्यूंकि शायद "प्यार अँधा होता है"..............................

Manish Singh "गमेदिल"

दोषी कौन............... हम या हमारी संस्कृति?

on Wednesday, October 6, 2010

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मैं गत २० दिनों से ब्लॉग्गिंग की दुनिया से नदारद था। कारण था मेरे अनुज की अकाल मृत्यु। मेरा अनुज "दीपक" मेरी मझली बुआ जी का ज्येष्ठ पुत्र था तथा मुझसे ३ वर्ष छोटा था। उसकी मृत्यु ने मुझे कुछ बिन्दुओं पर सोचने पर मजबूर कर दिया। जो मैं आप के साथ बाँटना चाहता हूँ।

१* सूनी देहरी: - बताता चलूँ मेरी बुआ जी का देहावसान तीन वर्ष पूर्व हुआ था उस समय दीपक मात्र सोलह वर्ष का किशोर था। बुआ जी के दो पुत्र और तीन पुत्रियाँ है। सबसे नन्ही बेटी मात्र एक वर्ष की थी।
अब सामने दो समस्याएं थी -
एक बच्ची का ख्याल कौन रख्खेगा? और दूसरी घर कौन संभालेगा?
नतीजा किशोर दीपक का विवाह करवा दिया गया।

२* दीपक का विवाह: - जिन परिस्थितयों में हुआ शायद कारण उचित हो। पर दीपक उस समय नाबालिग था, वह शारीरिक तथा मानसिक रूप से परिपक्व नहीं था। उस समय वह १२वी का छात्र था। विवाह होने से ना केवल उसके भविष्य की गति पर विराम लग गया बल्कि उसकी नयी नवेली मात्र १५ वर्षीय पत्नी की जिम्मेदारी का अतिरिक्त बोझ भी पड गया। उसे अपने "भविष्य को ताक पर रखकर" कमाने के लिए "दिल्ली" जाना पड़ा। क्या यह उचित था? क्या दीपक से साथ इंसाफ किया गया? मैंने उस समय भी बहुत कोशिश की थी पर बड़ों के विचारों के आगे मेरी आवाज को दबा दिया गया था। बेचारा दीपक, भविष्य के लिए उसने क्या क्या सपने देखे होंगे उसे सब-कुछ कुर्बान करना पड़ा।
मैं आप से पूछता हूँ - क्या बच्ची तथा घर की जिम्मेदारी मिल कर नहीं उठाई जा सकती थी?
पर ऐसा नहीं हुआ।

३* १८ वर्षीय विधवा: - दीपक की अकाल मृत्यु ने उसकी पत्नी को बदहवास सा बना दिया है। उसकी हालत क्या होगी आप स्वयं अंदाजा लगा सकते है। मैं सिर्फ इतना कहूँगा की मैं उसकी हालत को उल्लेखित नहीं कर पाउँगा। पागलों जैसा ब्यवहार है उसका, हर आहट पर चौक जाना, शायद उसे अभी भी लगता है की दीपक वापस ज़रूर आएगा। यहाँ पर बताना चाहूँगा की दीपक की एक नन्ही सी परी "दिब्यांशी" भी है।

क्या होना चाहिए दीपक की पत्नी तथा उसकी परी का भविष्य? हमारे समाज के विद्वान पंडितों ज्ञानी का कहना है की हमारी संस्कृति के अनुसार एक विधवा को उसी घर में रहकर अपने ससुर, ननद और देवर का ख्याल रखना चाहिए। मैं आपसे पूछता हूँ - क्या यह उचित होगा? हम एक बार दीपक से साथ अन्याय कर चुके हैं क्या हमे अपनी गलतियों की पुनरावृति कर लेनी चाहिए? क्या यह उचित न होगा की दीपक की पत्नी जो की मात्र अठ्ठारह वर्ष की है, जिसने मात्र तीन वर्षों में ही पूरी जिंदगी जी ली, इन तीन वर्षों में वह बच्ची से ज़वान हुई, फिर माँ बनी और अब विधवा, का पुनर्विवाह कर दिया जाये। ताकि वह अपनी जिंदगी खुशहाल ढंग से जी सके। मेरी आवाज को बल दें ताकि मैं इन घिसे-पिटे रीति रिवाजों के चंगुलों से एक मासूम को आज़ाद करा सकूँ।

आपका मनीष सिंह "गमेदिल"

"चलो इंसानियत ढूंढते है"

on Monday, September 6, 2010

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"भागती दुनिया में जहाँ वक़्त का ठिकाना ही नहीं,
गैर तो गैर सही अपनों को जाना ही नहीं,
मरती हुई हरेक लम्हा जिन्दगी के कतरों में;
चलो मासूमियत ढूंढते है, चलो इंसानियत ढूंढते है,

कदम के साथ कदम मिलाने की कोशिश में जहाँ,
रस्ते में पड़े मौकों को भुनाने में जहाँ,
कहीं दूर भँवर में जिसे छोड़ा था कभी;
"सदा खुश रहो" कहती उन भीगी पलकों में,
चलो इंसानियत ढूंढते है,

मशगुल दिखे "ख़ुशी", ख़ुशी पाने की हसरत में,
"जल्दी मुकाम" पाने का जुनून इन्सां की फितरत में,
"चाहे जैसे भी" की लत में, कोई "धुयें के व्यसन में,
पर आते ही नज़र चेहरा "बाप" का इन झुकी नज़रों में,
चलो इंसानियत ढूंढते हैं,

"मैं कौन हूँ?" और "कहाँ हूँ?" हर वक़्त ढूंढते हो,
"अजनबी" सवालों का पता "अजनबी" से पूछते हो,
जहाँ देने के लिए "समय" भी "समय" खो जाता है,
वहीँ दिखते ही "शव-यात्रा" बरबस रुके पैरों में,
चलो इंसानियत ढूंढते हैं, चलो इंसानियत ढूंढते हैं......

Manish Singh "गमेदिल"

नवशक्तियुग

on Thursday, August 19, 2010


"आज बाँहों में शक्ति को भरना है हमे,
गाँधी ही नहीं आजाद भी बनना है हमे,
शक्ति की आराधना करनी ही होगी,
अगर भारत को आज़ाद ही रखना है हमे।


कर चुके कितनी ही हम शांति वार्ता,
कोई बताये कितनी मिली हमे सफलता,
मीठी बाँतो से देश की रक्षा ना होगी,
हारते ही रहेंगे गर बांहों में शक्ति ना होगी,
अब कोई समझौता नहीं करना है हमे
अगर भारत को आज़ाद ही रखना है हमे

हम चले विश्व को शांति सन्देश देने,
किन्तु वो आ गया हमारे ही प्राण लेने,
मिटा सिंदूर कोख उजड़ी कितनो की,
किसने सुनी है पीड़ा दुर्बल-जनों की,
आज रिपु मान मर्दन करना है हमे,
अगर भारत को आज़ाद ही रखना है हमे

मत भूलो कुछ ही हैं मानवतावादी,
हर तरफ खड़ा है एक आतंकवादी,
प्रेम का राग जिसे आता ही नहीं,
शांति का सन्देश जिसे भाता ही नहीं,
एकजुट होकर आतंकवाद से लड़ना है हमे,
अगर भारत को आज़ाद ही रखना है हमे

वक़्त आ गया है शक्ति उपासना का,
पीड़ित भारत भूमि की आराधना का,
ह्रदय में हो प्रेम, बाँहों में शक्ति हो,
इस सफलता मंत्र की घोर साधना का,
नवशाक्तियुग का आवाहन करना है हमे,
अगर भारत को आज़ाद ही रखना है हमे

Manish Singh "गमेदिल"

राहों में तू संग नहीं...............

on Monday, February 1, 2010

मौत ही दुश्मन नहीं,
जिन्दगी भी कम नहीं,
फिजा ही लूटे जिसे;
महके वो गुलशन नहीं,

आँख भी वीरान है,
पास आँसूं चंद नहीं,
पिटारा है गम का वो,
जिस ख़ुशी में तुम नहीं,

किस्मत ही है जब खफा,
बेवफा फिर तुम नहीं,
रंज इतना है "गमेदिल"
राहों में तू संग नहीं...............

Manish "गमेदिल"

देख भारत रो रहा है.....

on Thursday, January 28, 2010

भारत के वीर सेनानी, तू अभी भी सो रहा है,
देख भारत रो रहा है, देख भारत रो रहा है;

अब भी चहुं-ओर अँधियारा है,
मानवता ने हमे पुकारा है,
कहाँ गए वो देश भक्त,
जो कहते देश हमारा है,
क्या भारत कोख में अपनी कायरों को ढो रहा है?
देख भारत रो रहा है;

जागो! देख हिमालय को,
जो जड़ों को अपनी खोल रहा है,
जो धोता रहा पैर हमारे;
आज हमी से बोल रहा है,
क्यों भारत के दामन मैं तू काँटों को बो रहा है,
देख भारत रो रहा है;

विश्व को जिसने संभाला,
आज वो पीछे क्यों है?
जिसने छुआ आसमां पहले,
आज वो नीचे क्यों है?
देश को रोशन जो करता वो सितारा खो रहा है,
देख भारत रो रहा है;

स्वार्थ का चोला हटाकर,
एक प्रण निश्चित करना है,
खुद को बदलकर आज हमें,
देश को विकसित करना है,
ए! मेरे भारत के वीरों देश पीछे हो रहा है;
देख भारत रो रहा है;

Manish "गमेदिल"

----------: गम :------------

on Saturday, January 23, 2010

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मुझे ना रोको तूफां हूँ मैं,

कुछ ना पूछो कहाँ हूँ मैं,

जहां बेबसी में कोई रोता मिले;

समझ ले नादाँ वहां हूँ मैं,

मिटता नहीं वो निशाँ हूँ मैं,

गमेदिलों का आशियाँ हूँ मैं,

अरे "गमेदिल" मुझे गम कहते हैं;

दिल की जमीं का आसमां हूँ मैं.................

Manish "गमेदिल"

Be Can’t..................

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I stumble down be can’t

Able to get up be can’t

May peoples laugh, but;

Not able howl be can’t


To live here so difficult,

My thoughts even hurt,

I’ve broken like pearls,

But shattered be can’t


What about hold-leaf,

Yet drown Entire Ocean,

I will not able to come

At the shore; be can’t


All dreams even crushed,

All wishes Sitting upset,

No glow in life “Gumedil”

Go down to knee, be can’t..............


Manish "गमेदिल"

"तरसी-निगाह"

on Monday, January 18, 2010

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"फरियाद कर रही है ये, तरसी हुयी निगाह,
मिल जाए किसी आइने में मुझको भी पनाह;

गुलशन-परस्त हो गया एक घर तलाशते,
है गुल नहीं तो क्या हुआ कांटों में भी निबाह;

ये कैसा मोड़ साकी था तेरे ख्यालों का,
रुक गयी है लब पे देख इस तरफ भी आह;

जो सूखे हुए फूल मिले तेरी किताब में,
वो मैं ही हू कह दे तू कुबूल हर गुनाह;

बुझे-बुझे चिरागों की बढ़ा दे तू लौ,
भटक न जाऊं कही हो के मैं गुमराह;

जिंदगानी दो दिन की मुस्कुरा ले तू,
होना ही है जिन्दगी का मौत से ही ब्याह,

आज फिर है बह चला "दरियाए-गमेदिल"
बहा दे मुझे इस तरह मिले न कहीं थाह........."

Manish "गमेदिल"

EMPEROR............"सुल्तान"

on Friday, January 1, 2010

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गुमनाम ही सही मैं,
बदनाम ही सही मैं,
पर नज़रों में अपनी एक इंसान तो हूँ मैं,
हो रहा मुश्किलों से,
मैं दूर मंजिलों से,
पर तूफां में भी जिन्दा एक अरमान तो हूँ में,

बन जाऊं मैं सहारा,
ले लूँ गम मैं सारा,
जिसको भी दुनिया मे बेअमा देखूं,
मिटा दूँ मैं अँधेरा,
खवाब है ये मेरा,
दे दूँ जबां उसको जिसे मैं बेजुबां देखूं,
माना बहुत गम है,
जिन्दगी मेरी कम है,
पर मिट ना सकेगी वो मुस्कान तो हूँ मैं,

दुनिया के हर सितम को,
जो अपने रंजो-गम को,
दिल की कोठरी में दफना नहीं सकता,
जो डरता है धारों से,
चलता है किनारों पे,
वो सुख की जन्नत को कभी पा नहीं सकता,
रोने लगे जमाना,
इस तरह मुस्कुराना,
"गमेदिल" गुलिस्तां का सुल्तान तो हूँ मैं,
पर नज़रों मे अपनी एक इंसान तो हूँ मैं...........................

Manish "गमेदिल"

Human.............."इंसान"

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खोज रहा हूँ ठिकानों में,
पत्थर के बने मकानों मे,
"खुली हुई" दुकानों में,
अपनों में अनजानों में,
बिखरे से अरमानों में,
सिसकते हुए तरानों में,
गुलशन में वीरानों में,
पतझड़ में पैमानों में,
प्रेमातुर परवानों में,
महोब्बत में दीवानों में,
वादों में बहानों में,
आंसू में मुस्कानों में,
खुशियों के खजानों में,
ग़मों के दहानों में,
बदलते फसानों में,
आते मेहमानों में,
सच्चे बेईमानों में,
बूढ़े सयानों में,
पर "इंसान" ना मिला "इंसानों" में................................

Manish "गमेदिल"

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